मुनि श्री चिन्मय सागर जी महाराज (जंगल वाले बाबा) इन दिनों कर्नाटक के बेलगांव जिले के शेडवाल आश्रम में विराजमान हैं। मुनि श्री चिन्मय सागर जी ने मध्य प्रदेश के सोनागिर तीर्थ क्षेत्र में वर्ष 1988 में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ली थी। लगभग 32 वर्षों तक जैन मुनि के रूप में कठिन तप और साधना करते हुए, इन दिनों मुनि श्री अस्वस्थ हैं। वह केवल दो अंजुलि जल ही 24 घंटे में एक बार नियम से आहार के समय ले पा रहे हैं।खराब स्वास्थ्य को देखते हुए, वह सल्लेखना व्रत लेना चाहते हैं।वही उनके भक्त उनका सानिध्य चाहते हुए,उनसे आहार के समय औषधि लेने का निवेदन कर रहे हैं। जयपुर के वैद्यराज श्री सुनील जी ने अपनी पुत्री के माध्यम से जंगल वाले बाबा से अनुरोध किया है कि वह सल्लेखना व्रत नहीं ले। आहार में औषधि लेकर अपने स्वास्थ्य की रक्षा करें। वैधराज के इस अनुरोध पर जंगल वाले बाबा ने अपने भक्तों के लिए संदेश देते हुए कहा,कि आप सभी सदभक्तों की सद्भावना बहुत अच्छी है। मुनि श्री ने कहा 7 किस्म के भय होते हैं। उनमें एक मृत्यु का भी भय होता है। संत सभी प्रकार के भयों से मुक्त होते हैं। संसारी प्राणी मृत्यु से भयभीत होता है। वह मृत्यु नहीं चाहता है। फिर भी उसके पास मृत्यु पहुंच जाती है। संत मृत्युंजयी होता है। जैन मुनियों में किसी प्रकार का भय नहीं होता है।जन्म एवं मरण अनादि काल से जीव के साथ लगा हुआ है। जन्म एवं मरण से महत्वपूर्ण चैतन्य अवस्था होती है। जंगल वाले बाबा ने कहा कि हम सभी आत्म कल्याण करना चाहते हैं। में जितना जन कल्याण करना चाहता था। उसका पूरा प्रयास किया है। वर्तमान स्थिति में अब मेरी कोई कामना नहीं है। सल्लेखना के लिए साधक हमेशा सावधान रहता है। सल्लेखना का अर्थ लेखन के साथ विशुद्धि है। पहले आदि- व्याधि की शुद्धि संयम और तप के माध्यम से 32 वर्ष लगातार करते हुए संयम का पालन किया है।जन-कल्याण एवं जिन शासन के संस्कार सभी भक्तों तक पहुंचाने के लिए कई राज्यों में पद बिहार करते हुए भक्तों को संस्कार देने का काम किया है। जंगलों में कठिन तब और तपस्या करते हुए आदि- व्याधि की शुद्धि के बाद जीवन में चैतन्य की शुद्धि प्राप्त होने का एहसास हो रहा है। जंगल वाले बाबा ने कहा मैं एक सावधान साधक हूं। जीवन और चैतन्य की शुद्धि सल्लेखना के माध्यम से होती है। सल्लेखना (समाधि) एक अदभुत और अनोखी घटना है। एक पारदर्शी जीवन है। समाधि में साधक की ना जीवन जीने की इच्छा होती है, और नाही मरने की इच्छा होती है। समाधि में केवल चैतन्य के साथ जुड़े रहने की इच्छा होती है। जंगल वाले बाबा ने कहा सल्लेखना दो प्रकार की होती है। काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना।कषाय को क्षीण करना कषाय की विशुद्धि बनाए रखते हुए शरीर की सल्लेखना होती है। साहस शूरता सजगता को बनाए रखना ही साधक का प्रमुख कार्य होता है। जंगल वाले बाबा ने कहा कि में चाहता हूं कि जीवन की शुद्धि, चैतन्य अवस्था के माध्यम से साधक बनकर सफल करूं।उन्होंने कहा कि मेरे बचपन की इच्छा थी। संयम धारण करके समाधि को प्राप्त करूं। आज मेरा सौभाग्य है मैं विगत 32 वर्ष से साधना में रत हूं। जंगल में साधना करते हुए विशुद्धि, संयम को धारण करते हुए तप किया है। में अपनी साधना और अवसर को अपने अंतिम समय में खोना नहीं चाहता हूं। जंगल वाले बाबा में कहा कि मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं। जिसे परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षा प्राप्त हुई। अंतिम समय तक मुझे उनका आशीर्वाद मिल रहा है। जंगल वाले बाबा ने कहा कि मुझे ऐसे सदभक्त मिले, जिन्होंने मुझे इस मार्ग में सतत चलने में मदद की।मैंने भी अपनी ओर से सभी भक्तों को सही दिशा देने का प्रयास किया है।गुरुदेव आचार्य विद्यासागर जी महाराज की अनुकंपा और आशीर्वाद से मेरा जीवन सफल रहा है। मैं अपने अंतिम समय पर पूरे चैतन्य के साथ सल्लेखना व्रत के माध्यम से, अपनी यह यात्रा पूर्ण करना चाहता हूं। उन्होंने अपने सभी भक्तों को आशीर्वाद दिया है।